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गांधीजी की क्रांतिकारी रचनात्मकता

- नारायण देसाई

[ गांधीजी महज परोपकार को ही रचनात्मक कार्य नहीं मानते थे | उनका मत था जो भी मनुष्य में अहिंसक शक्ति जगाए वही रचनात्मक कार्य है | आज के सन्दर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सरकारों के साथ ही साथ जनता का एक वर्ग भी हिंसक तरीके से उद्देश्यपूर्ण को उचित मानने लगा है |]

रचनात्मक कार्यक्रम को हम गांधी जी द्वारा इस देश को और कई साधनों में सारे संसार को दी गई तीन महान देन में एक मान सकते हैं | गांधी के समग्र व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर यदि उसे आम्रवृक्ष की उपमा दी जाए तो यह कहा जा सकता है कि गांधी के बीज और उनकी जड़ें उनकी आध्यात्मिकता में थीं, जो उनके द्वारा आश्रमवासियों को दिये गये एकादश व्रतों में प्रकट हुई | उस वृक्ष का तना था उनके आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विचार जिनके लिए उन्होंने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ शब्द प्रयोग किया | उस वृक्ष के फलफूल उनके सत्याग्रहों में प्रकट हुए | ज्यादातर लोग इन फल फूलों को ही देखते हैं, लेकिन इन तीनों का एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न एवं जैव सम्बन्ध है |

‘रचनात्मक कार्य, गांधीजी द्वारा इस्तेमाल किया हुआ पारिभाषिक शब्द है | यों तो सड़क, मकान या पुल बनाने के काम को रचनात्मक माना जा सकता है | परन्तु गांधीजी ने इन शब्दों को एक विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया था | गांधी उसी कार्यक्रम को रचनात्मक कार्यक्रम मानते थे जो आम जनता की अहिंसक शक्ति जगाता हो | विनोबा ने उसकी शास्त्रीय परिभाषा की - हिंसा शक्ति की विरोधी, दण्डशक्ति निरपेक्ष तृतीय लोकशक्ति |

हममें से कईयों का रचनात्मक कार्यक्रम से मतलब करुणाजनित कार्यक्रम होता है | गांधीजी ने भी शुरुआत उसी प्रकार की थी | दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने द्वार के सामने एक पेड़ की आड़ में अपना मुंह छिपाते खड़े एक कुष्ठ रोगी को घर में बुलाया उसे प्राथमिक उपचार दिया तथा अस्पताल पहुँचाया | वह करुणा उस अस्पताल में कुष्ठरोगियों के लिए अलग व्यवस्था खड़ी करने तक पहुंची | जोहान्सबर्ग में फैल रही गंदगी को देख उन्होंने नगर निगम को आगाह किया कि इससे महामारी फैल सकती है | कुछ लोगों ने इसका उपहास भी किया | लेकिन गांधी जी की चेतावनी सच सिद्ध हुई | गांधी जी तुरन्त ही एक छोटी टोली गठित कर प्लेगग्रसित मुहल्लों में पहुँच गये और जान का खतरा उठा कर रोगियों की सेवा की |

दक्षिण अफ्रीका में श्याम रंग के लोगों की पानी की तकलीफ देख उनके लिए तालाब या टंकी का निर्माण करवाया | इस तरह उनके रचनात्मक कार्य का आरंभ तो करुणा और सेवा के भाव से ही हुआ था | लेकिन हम में से कुछ के मन में रचनात्मक कार्यक्रम करुणा से शुरु होकर करुणा पर ही समाप्त हो जाता है | गांधी का कार्यक्रम करुणा से शुरु हुआ था, लेकिन वहीं पूरा नहीं हुआ | उन्होंने इसे समाजव्यापी बनाया और जीवन के अनेक पहलूओं को उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम में समेत लिया |

वैसे ये शब्द उन्होंने भारत में आने के बाद कांग्रेस के लिए पहली बार प्रयोग किए | तीन मुद्दों के बढ़ते-बढ़ते वह अठारह मुद्दों तक पहुँचा और उसके बारे में भी उन्होंने लिखा कि यह कार्यक्रम इन अठारह कार्यक्रमों से समाप्त नहीं हो जाता | परिस्थिति की आवश्यकतानुसार वह बढ़ता रहेगा | आज ऐसे बहुत सारे कार्य हैं जो रचनात्मक कामों में गिने जा सकते हैं लेकिन जो उस समय सूची में नहीं गिने गये थे | उदाहरणार्थ तब पानी का संकट उतना तीव्र नहीं था जितना आज है | जल प्रबन्धन आज के एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम बन सकता है | यही कार्य सेंद्रिय खेती एवं जंगलों की हिफाजत के बारे में भी कहा जा सकता है |

रचनात्मक कार्य के बारे में गांधीजी की समझ गहरी और व्यापक बनती चली गई | उन्होंने रचनात्मक कामों की व्याख्या ही यह कर दी कि जिसमें से लोकशक्ति खड़ी हो वही रचनात्मक काम | उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर समूचा देश सारे रचनात्मक कार्यक्रम को पूरा-पूरा अमल में लाए तो स्वराज के लिए असहयोग, सविनय कानून भंग जैसे सत्याग्रह करने की जरूरत ही नहीं होगी | देश अपने आप ही स्वतंत्र हो जायेगा |

यह थी रचनात्मक कार्य की क्रांतिकारी व्याख्या | क्रांतिकारी के दो पहलू होते हैं - धनात्मक एवं ऋणात्मक, सकारात्मक एवं नकारात्मक | क्रांति का एक काम उस व्यवस्था को जमींदोज करना होता है जो जीर्ण, बिगड़ी व सड़ी गली हो और उसका दूसरा काम है जीती जागती, निरामय समाज की रचना करना | वे ऐसे समाज को अहिंसक समाज कहते थे |

गांधी के कार्य की यह क्रांतिकारिता देखकर ही वियतनाम के साम्यवादी नेता हो ची मिन्ह ने कहा था कि “पहली और आखिरी बात | हम और हमारे जैसे दूसरे क्रांतिकारी सब गांधी के शिष्य हैं |” क्रांति न राज्य परिवर्तन से होती है न बिचौलियों से, उसे तो लोग ही करते हैं | हमारे रचनात्मक कामों से यदि अहिंसक लोकशक्ति जगे तभी गांधी के अर्थ में उन्हें रचनात्मक काम कहा जा सकता है | वरना उसे शायद कुत्तों, कौओं व गायों के लिए रोटी का टुकड़ा फेंकने जैसा करुणा कार्य तो कहा जा सकता है लेकिन क्रांतिकारी नहीं |

गांधी अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी कहलाते थे | इसलिए उन्होंने भिन्न-भिन्न रचनात्मक कार्यों को विकसित करते हुए उनकी व्यावहारिक कसौटी भी दे दी थी | उन कसौटियों को हम निम्नलिखित सूची में आंक सकते हैं,

  1. रचनात्मक कार्य का आरम्भ समाज के निम्नतम स्तर से होना चाहिए | लेकिन उसका अंतिम उद्देश्य समग्र समाज की उन्नति ही होना चाहिए |
  2. इन कार्यों की पहचान इस बात से होगी कि उनमें जनभागीदारी कितनी होती है | याने उसके बारे में अंतिम सारे निर्णय करने, उनका अमल करने और उनकी दिशा तय करने में लोगों की सहभागिता होगी मात्र कार्यकर्ताओं की नहीं |
  3. उसकी कार्यपद्धति ऐसी होगी कि जिसमें शरीक होने वाले सभी लोगों की अपनी स्वतंत्र पहचान होगी | वह कार्यपद्धति ऊपर से दिये जाने वाले हुक्म और नीचे से हुक्म बटवारी वाली नहीं होगी |
  4. उस कार्य में व्यवस्था खर्च न्यूनतम होगा | वह ऐसा कार्य नहीं होगा कि जिसमें व्यवस्था का खर्च ही ‘सोने की धड़ाई’ हो जाए |
  5. वह काम लोगों की जरूरतों एवं लोगों की मांग से खड़ा होना चाहिए केवल कार्यकर्ता की रुचि या शौक से नहीं, न इसलिए कि उस कार्य के लिए आर्थिक व्यवस्था आसानी से हो जाती हो|
  6. यह काम ऐसा हो जो लोगों को मजबूत बनाए, उन्हें पंगु या अलग-अलग योजनाओं से भिखमंगे बनाने वाले नहीं |
  7. उसकी सफलता की सही कसौटी यही होगी कि वह कितना शासन-निरपेक्ष हो सका |

हम अपने कामों की कसौटी यह न करें कि हमारा काम सरकार या विदेश की सहायता से चलता है या नहीं | उसकी कसौटी यह होनी चाहिए कि हमें जो भी आर्थिक सहायता मिलती है वह हमारी शर्त के अनुसार मिलती है या दाता की | रचनात्मक कामों में क्रांतिकारी शक्ति तभी तो आ सकेगी अगर हम यह शर्त निभा सकेंगे और इसके बाद ही हम जैसे बिचौलिये मिट कर सच्चे रचनात्मक कार्यकर्ता बनेंगे |

सौजन्य : सर्वोदय जगत, सितंबर २०११