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"हिंदुस्तान हर उस इंसान का है जो यहां पैदा हुआ है..." |
- महात्मा गांधीझूठ और सच में फर्क क्या है ? बस इतना कि झूठ के पांव नहीं होते, वह सच की बैसाखी पर ही चल पाता है। झूठ स्वार्थ और सुविधा के मुताबिक बदलता रहता है, क्योंकि उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है। झूठ रचा जाता है, गढ़ा जाता है और अपनी सुविधा व स्वार्थ से बयान किया जाता है। वह शब्दों में बोला जाता है, इशारों में कहा जाता है, आंखों से बयां किया जाता है और कई बार चुप्पी भी झूठ के पक्ष में गवाही देती है। सत्ता असत्य का सबसे मजबूत खंभा है, क्योंकि असत्य की तरह ही सत्ता का आधार भी खोखला होता है। सत्ता के पास न सत् होता है, न शिव, न सुंदर ! उसके पास आडंबर होता है जो झूठ का सबसे बड़ा सर्जक है। झूठ संख्या के बल पर जीता है, सत्ता के बल पर फैलता है और भीड़ के पैरों से चलता है। सच के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं होती है। वह हमेशा एक ही होता है - रंग में भी, ढंग में भी। पात्र भी और कुपात्र भी, सत्ता भी और प्रतिरोध भी; अपने भी और पराये भी, मौत भी और जीवन भी – सभी सत्य की तुला पर एक-से तोले व बोले जाते हैं। सत्य को शब्दों का माध्यम तो चाहिए होता ही है लेकिन वह प्रभावी तभी होता है जब वह हमारे भीतर उतरता है - हमारे रंग में, ढंग में, चाल और चलन में। और सत्य अनंत काल तक अपनी जगह खड़ा रहता है - चलता है-फैलता है; बोलता है-कहता है; और सच से पूछो तो वह सच बताता भी है क्योंकि वह बदलता नहीं है। किसी ने खूब कहा है: सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे/झूठ की कोई इंतहा ही नहीं। नागरिकता का सवाल सरकार ने आज जिस तरह खड़ा किया है वह नितांत बनावटी और झूठा है | उसमें नागरिक की और नागरिकता की चिंता नहीं है, वोटर की और सत्ता की अंधी लोलुपता है। चिंता यह है कि जो अपना वोटर है वह तो अपनी मुट्ठी में बना ही रहे; जो अपना वोटर नहीं है उसे या तो अपना वोटर बनाया जाए या फिर उसे अपने रास्ते से हटाया जाए ताकि वह वोटों की गिनती में फर्क न ला सके। जब आप देश को नागरिक की नजर से नहीं, सत्ता की नजर से देखते हैं तब आप देश को नहीं, कुर्सी को देख रहे होते हैं। आज ऐसा ही हो रहा है। सत्ता का यही संदर्भ था जब गांधीजी ने 'हिंद-स्वराज्य' में लिखा: "जिसे आप पार्लियामेंटों की माता कहते हैं, वह पार्लियामेंट तो बांझ और वेश्या है। ये दोनों शब्द बहुत कड़े हैं तो भी उस पर अच्छी तरह लागू होते हैं। जब कोई उसका मालिक बनता है, जैसे प्रधानमंत्री, तो जैसे बुरे हाल वेश्या के होते हैं वैसे ही हाल पार्लियामेंट के होते हैं। प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की परवाह थोड़े ही होती है। वह तो अपनी सत्ता की मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते, इसी की लगन उसे रहती है। अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंट से कैसे-कैसे काम करवाता है, इसकी जितनी चाहें उतनी मिसालें मिल सकती हैं। मुझे प्रधानमंत्रियों से द्वेष नहीं है। लेकिन मेरा तजुर्बा बताता है कि वे सच्चे देशाभिमानी भी नहीं कहे जा सकते |... मैं हिम्मत के साथ कह सकता हूं कि उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती है | ... कोई दौर-दमवाला आदमी हो और उसने अगर कुछ बड़ी-बड़ी बातें कर दीं या दावतें दे दीं, तो पार्लियामेंट के सदस्य नक्कारवी की तरह उसी के ढोल पीटने लग जाते हैं।" सोच कर देखें तो आप हैरान रह जाएंगे कि सौ साल से भी अधिक पहले महात्मा गांधी जैसे हमारी आज की पार्लियामेंट की ही तस्वीर बना रहे हैं। बकौल प्रधानमंत्री: "महात्मा गांधीजी ने कहा था कि पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिख साथियों को जब लगे कि उनको भारत आना चाहिए, तो उनका स्वागत है। ये मैं नहीं कह रहा हूं, पूज्य महात्मा गांधीजी कह रहे हैं। ये कानून उस वक्त की सरकार के वायदे के मुताबिक है।" सबसे पहले कहा प्रधानमंत्री ने, और फिर उसे दोहराया गृहमंत्री ने और फिर सत्तापक्ष के सभी हां-में-हां मिलाने लगे कि देश विभाजन के बाद नागरिकों की आवाजाही के बारे में गांधीजी ने ऐसा ही कहा था; और यह भी कहा गया कि हमारे महान प्रधानमंत्री की सरकार आज जो कर रही है उसे गांधीजी की स्वीकृति प्राप्त है। देश-विभाजन के बारे में, उसके कारणों के बारे में, उसके जिम्मेवार लोगों के बारे में, विभाजन के बाद दोनों तरफ के नागरिकों के बारे में और उनकी आवाजाही के बारे में - कुछ भी ऐसा नहीं है कि जिसके बारे में गांधीजी ने उन दिनों में अपनी बात साफ-साफ न कही हो। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बातें कह जाने की अहिंसक कला जैसी उन्हें सधी थी वैसी किसे सध सकी ? तो यह भी तो है न कि सत्य के प्रति उन जैसी अविचल निष्ठा भी हम कहां पाते हैं !! इतिहास टटोलते हैं तो हमें वे पन्ने मिलते हैं जिनमें गांधीजी विभाजन के बाद उधर-से-इधर आने वाले नागरिकों के बारे में अपना नजरिया बयान करते हैं। ये सारे पन्ने उन दिनों के हैं जब बंगाल की सांप्रदायिक खूंरेजी पर विवेक के छींटे डालने के बाद गांधीजी पंजाब जाने के लिए दिल्ली पहुंचते हैं। उन्हें यहां रुकना नहीं था - दिल्ली रास्ते का पड़ाव भर थी। लेकिन हालात ने उनके पांव बांध लिये। अब उनका देश आजाद था, अब उनके अपने लोगों की सरकार भी थी लेकिन जैसे कोई अपशकुन सबको घेर रहा था।... फिर गांधीजी जो रुके दिल्ली में तो 30 जनवरी 1948 को तीन गोलियों से, दुनिया से हुई अपनी विदाई तक फिर कहीं नहीं गए। । अप्रैल 1947 से 29 जनवरी 1948 के बीच के रक्तरंजित 10 महीनों के दौरान गांधीजी ने वह सब कहा जिसे स्वतंत्र भारत की तब की और बाद में आई सभी सरकारों के लिए दिशा-निर्धारक होना चाहिए था। वह तो नहीं हुआ लेकिन आज अपनी क्षुद्र राजनीतिक चालों के समर्थन में उन्हीं पन्नों को पलटा जा रहा है और संदर्भ से काट कर, अपने लिए गांधीजी का समर्थन जुटाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने जो कहा वह भी इन्हीं पन्नों में कहीं छिपा हुआ है। हम जब उन पन्नों को पलटते हैं तो उनकी पवित्रता, उनकी मासूमियत और उनका सटीकपन हमारा मन और हृदय उसी तरह भिगो देता है जिस तरह ओस की बूंदें पत्तों को गीला कर जाती हैं। संभव है कि हम उनसे सहमत न हों लेकिन यह संभव नहीं है कि हम उनका गलत मतलब निकालें या अपना मतलब साधने के लिए उनके साथ बेईमानी करें। कैसा होगा स्वतंत्र भारतीय समाज ? - पहला उल्लेखनीय जवाब 8 अगस्त 1947 को मिलता है। वे दिल्ली कांग्रेस के बड़े नेता आसिफ अली बेग का उर्दू में लिखा एक पत्र पढ़ते हैं जिसमें बेग साहब ने लिखा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हजार से ज्यादा स्वयंसेवक शाखा में आते हैं, लाठियां भांजते हुए नारे लगाते हैं : "हिंदुस्तान हिंदू का, नहीं किसी और का ..." जवाब देते हुए गांधीजी कहते हैं: "हिंदुस्तान हर उस इंसान का है जो यहां पैदा हुआ है और यहां पला-बढ़ा है। जिसके पास अपना कोई देश नहीं है, जो किसी देश को अपना नहीं कह सकता है, यह देश उसका भी है। इसलिए भारत पारसी, बेनी इसराइली, भारतीय ईसाई सबका है। स्वाधीन भारत हिंदू राज नहीं, भारतीय राज होगा जो किसी धर्म, संप्रदाय या वर्गविशेष के बहुसंख्यक होने पर आधारित नहीं होगा। भारत किसी भी धार्मिक भेदभाव के बिना सभी लोगों के प्रतिनिधित्व पर आधारित होगा।" 25 सितंबर 1947 को वे फिर इस सवाल पर लौटते हैं: "राजा तो हम बन गए लेकिन हमारे जो लोग हैं उन्होंने आजादी का मानी यह मान लिया कि हम जो चाहें वह कर सकते हैं। जो आदमी अपने हाथ साफ नहीं रखता वह साफ चीज क्या देखेगा और उसकी कहां तक कदर करेगा? क्या जो पाकिस्तान में होता है और हो रहा है, ऐसा हम भी करने लगें ? दुनिया का काम इस तरह नहीं चलता है। पाकिस्तान तो खतरे में पड़ा ही है, हम भी खतरे में पड़ सकते हैं। आप लोगों का धरम क्या है ? मिल-जुल कर रहें, मुसलमानों को दुश्मन नहीं समझें। जो दुश्मन हैं, वे अपने-आप मर जाएंगे। लेकिन हम एक आदमी को भी दुश्मन समझें, उसको मारें-पीटें तो उसमें हमारी बुजदिली है। उनके-हमारे बीच में भगवान है।... दिल्ली में आग भभक रही है, दूसरी जगहों पर भी आग लगी है। तो हमारा धर्म हो जाता है कि हम उसे मिटा दें, उस पर पानी डालें। हम लोगों को समझाएं। जब तक मुझमें सांस है, मैं सारी दुनिया से यही कहने वाला हूं। "मैं कहता हूं कि हमारी पुलिस, मिलिट्री को भी लोगों का सेवक बनकर रहना है, अमलदार बनकर नहीं। अमलदारी का जमाना चला गया। मेरा तो उसूल यह है कि मुहब्बत से काम लेना चाहिए। अगर हम ऐसा कहेंगे कि हिंदी मिलिट्री है, पंजाबी मिलिट्री है तो मुसलमानों को कटवा देगी तो यह सब सुन कर मुझको दुख भी होता है और हंसी भी आती है। मैं आपको कहना चाहता हूं कि सब ऐसे बनें तो हमारा हिंदुस्तान बिल्कुल ख्वार हो जाएगा और हमारी आजादी, जो एक महीना और दस दिन की है, वह दो महीने भी नहीं चल सकेगी। ऐसा हम न करें। हमको बहादुर बनना चाहिए। सिर्फ भगवान से हम डरें। पाकिस्तान में कुछ भी हो, दूसरे कुछ भी करें, हमें साफ रहना है, हम दिल शुद्ध रखें। मुसलमानों को हिंदुस्तान का वफादार बनना है। अगर वे वफादार नहीं रहते हैं तो वे शूट होते हैं। हिंदुस्तान की बेवफाई की है तो उनके लिए एक ही इलाज है कि उनको गोली से शूट किया जाए या फांसी पर चढ़ाना होगा। दूसरा तरीका नहीं। यह शर्त है उन लोगों के लिए, जो हिंदुस्तान में रहते हैं। मुसलमान तो हमारे भाई हैं, मुसलमानों का तो सब घर-बार यहां पड़ा है। इसलिए हमको समझ लेना चाहिए कि जो यहां रहना चाहें वे खुशी से रहें। हमको एक-दूसरे का डर न हो। मैं तो आपको कहूंगा कि आप विश्वास रखिए क्योंकि विश्वास से विश्वास बन सकता है और दगाबाजी से दगाबाजी।" 26 सितंबर 1947 को वे फिर इस सवाल को छूते हैं: "यह जो चल रहा है, यह न सिख-धर्म है, न इस्लाम, न हिंदू! ऐसा कोई धर्म टिका रह सकता है कि जो वैसे काम करे जो न करने जैसे हैं ? गुरु नानक से सिख पंथ चला। गुरु नानक ने क्या सिखाया है ? वे कहते हैं कि ईश्वर को तो बहुत नाम से हम पहचानते हैं, उनके बयान में अल्लाह आ जाता है, रहीम आ जाता है, खुदा आ जाता है। सब धर्मों में यह है। नानक साहब ने भी यह यत्न किया कि सबको मिला देंगे। कबीर साहब ने भी वही कहा। वह जमाना चला गया। यह हमारे लिए दुख की बात है। "आज एक भाई मेरे पास आए - गुरुदत्त ! बड़े वैद्य हैं। अपनी कथा सुनाते-सुनाते रो दिए वे। उन्होंने कबूल किया कि 'तुम्हारी शिक्षा यह थी कि मुझे वहां मर जाना था, लेकिन उसकी हिम्मत मुझमें नहीं थी !' उन्होंने कहा कि "मैंने तुम्हारा सदा सम्मान किया है और मैं समझता आया हूं कि जो तुम बताते हो वही सच्ची बात है। लेकिन सच्ची बात के मुताबिक चलना दूसरी बात है। वह मुझसे नहीं बना। अभी मुझसे कहो तो मैं वापस चला जाऊं ।' मैंने कहा कि अगर हम समझें, हमको बिलकुल साबित हो जाता है कि पाकिस्तान गवर्नमेंट से हम कभी इंसाफ नहीं ले सकते हैं, वे अपनी-आप कबूल ही नहीं करते कि उन्होंने कुछ गुनाह किया है, अगर आप उनकों समझा न सकें तो आपकी कैबिनेट है, बड़ी भी कैबिनेट है, उसमें जवाहरलाल हैं, सरदार पटेल हैं, और दूसरे अच्छे आदमी भी पड़े हैं, वे भी उनको समझा न सकें, तो आखिर में लड़ना होगा। हम आपस में दोस्ताना तौर से तय कर लें। हम ऐसा क्यों न कर सकेंगे ? हम हिंदू-मुसलमान कल तक दोस्त थे तो क्या आज ऐसे दुश्मन बन गए कि एक-दूसरे का भरोसा ही नहीं करते ? अगर आप कहें कि भरोसा नहीं ही करने वाले हैं, तो पीछे दोनों को लड़ना पड़ेगा। लॉजिक बताती है जिनके पास फौज रहती है, पुलिस रहती है और जिनको उनके मार्फत काम करना पड़ता है, वे ऐसा न करें तो कया करें ? अगर यही करते हैं कि वे पाकिस्तान में एक को मारते हैं तो हम दो को मारेंगे, तो कौन किसका रहेगा ? अगर हमको इंसाफ लेना है तो हम यह समझ लें कि यह मेरा और आपका काम नहीं है। वह हमारी हुकूमत का काम है। हुकूमत को कहो। वह तो हमारी मदद के लिए पड़ी है। हमें हमला नहीं करना है लेकिन लड़ने के लिए तैयार रहें, क्योंकि लड़ाई जब आती है तो हमें नोटिस देकर नहीं आती है। किसी को लड़ने के लिए आगे कदम बढ़ाना नहीं है, लेकिन अगर कोई कदम बढ़ाता है तो पीछे दोनों हुकूमतों का सत्यानाश हो जाता है। लड़ाई कोई मामूली चीज नहीं है। मैं आखिर कब तक यह बताऊंगा। अगर दोनों के बीच समझौता नहीं हो सकता तो हमारे लिए दूसरा कोई चारा नहीं। पीछे जितने हिंदू हैं वे लड़ते-लड़ते बरबाद हो जाएं या मर जाएं तो मुझे इसमें कोई दुख नहीं। लेकिन हमें इंसाफ का रास्ता लेना है। मुझे कोई परवाह नहीं है कि सब-के-सब मुसलमान या हिंदू इंसाफ के रास्ते में मर जाते हैं। पीछे जो साढ़े चार करोड़ मुसलमान हैं अगर यह साबित होता है कि वे तो फिफ्थ कॉलमिस्ट हैं, पंचम स्तंभ हैं, तो उन्हें तो गोली पर जाना है, फांसी पर जाना है, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है | तो जैसे उनको जाना है वैसे ही हिंदू को, सिख को जाना है | अगर वे पाकिस्तान में रहकर पाकिस्तान से बेवफाई करते हैं तो हम एक तरफ से बात नहीं कर सकते। यहां जितने मुसलमान रहते हैं उनको अगर हम पंचम स्तंभ बना देते हैं तो वहां पाकिस्तान में जो हिंदू, सिख रहते हैं क्या उनको सबको भी पंचम स्तंभ बनाने वाले हैं ? यह चलने वाली बात नहीं है। जो वहां रहते हैं अगर वे वहां नहीं रहना चाहते तो यहां खुशी से आ जाएं। उनको काम देना, उनको आराम से रखना हमारी यूनियन सरकार का परम धर्म हो जाता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि वे वहां बैठे रहें और छोटे जासूस बनें, काम पाकिस्तान का नहीं, हमारा करें। यह बनने वाली बात नहीं है और इसमें मैं शरीक नहीं हो सकता। मेरे पास कोई जादू की लकड़ी नहीं है, तलवार नहीं है। मेरे पास एक ही बात रही है - ईश्वर का नाम लेना, ईश्वर का काम करना। उससे हमारे सब काम निबट जाते हैं। यह साधन मेरे ही पास थोड़े है, यह जो जादू है वह ईश्वर के पास पड़ा है। ईश्वर की कृपा न हो तो मैं क्या करने वाला हूं ? मैं तो बहुत वर्षों से, 60 वर्ष हो गए, बस लड़ने वाला रहा हूं - तलवार से नहीं, सत्य और अहिंसा के शस्त्र से। आज भी वह शस्त्र हमारे पास है, लेकिन वह मेरी अकेले की शक्ति नहीं। अगर आप सब मेरा साथ न दें तो मैं बेकार हो जाता हूं। "हमको जिस शक्ति से यह आजादी मिली है उसी शक्ति से हम इसे बनाए रखने वाले हैं। इस शक्ति से हमने अंग्रेजों को हरा दिया । बम-गोलों से नहीं हराया, निःशस्त्र हमने उनको हरा दिया। हिंदू हों, सिख हों, पारसी हों, क्रिस्टी हों अगर हिंदुस्तान में बसना चाहते हैं तो उनको हिंदुस्तान के लिए लड़ना है और मरना है। सब हिंदुस्तानी अपने देश के लिए लड़ेंगे, तो हमारे पास लश्कर हो या न हो, हमें कोई ताकत न हरा सकती है, न हटा सकती है। उन्होंने कहा है कि वे हिंदुस्तान के वफादार रहेंगे तो हम उनका विश्वास करें, और दिल से करें। याद रखें कि 'सत्यमेव जयते' सत्य की जय होती है ! सत्य हमेशा जय पाता है। 'नानृतम्' अर्थात् झूठ कभी नहीं। यह महान वाक्य है। इसमें हमारे धर्म का निचोड़ है। उसको आप कंठ कर लें, दिल में रख लें। तो मैं कहूंगा और जोरों से कहूंगा कि अगर सारी दुनिया हमारा सामना करे तो हम खड़े रहने वाले हैं, हमें कोई नहीं मार सकता है। हिंदू-धर्म का कोई नाश नहीं कर सकता। अगर उसका नाश हुआ तो हम ही करेंगे। इसी तरह इस्लाम का हिंदुस्तान में नाश होता है तो पाकिस्तान में जो मुसलमान रहते हैं वे कर सकते हैं, हिंदू नहीं कर सकते हैं।" 3। दिसंबर, 1947 को वे फिर बोलेः "कुछ मुसलमान भाई पाकिस्तान होकर मेरे पास आए थे। उन्होंने उम्मीद दिलाई कि जो हिंदू और सिख पाकिस्तान से आ गए हैं, वे वहां वापस जा सकेंगे। पर मैं कह चुका हूं कि अभी वह वक्त नहीं आया। अभी मैं किसी को वापस जाने की सलाह नहीं दे सकता। जब वक्त आवेगा तब मैं कहूंगा। अभी तो सुनता हूं कि सिंध में भी हिंदू नहीं रह सकते । चितराल से एक भाई मेरे पास आए थे। उन्होंने बताया कि वहां ढाई सौ के करीब हिंदू-सिख अभी पड़े हैं, जो निकलना चाहते है। सिंध में तो अभी बहुत हैं, हजारों हैं, जो वहां से निकलना चाहते हैं। वे सब जब तक नहीं आ जाएंगे, हिंद सरकार चुप नहीं बैठेगी, वह कोशिश कर रही है। "लेकिन मैं उसी बात पर जमा हूं कि जब तक सब हिंदू और सिख भाई, जो पाकिस्तान से आए हैं, पाकिस्तान न लौट जाएं और सब मुसलमान भाई, जो यहां से गए हैं, यहां न लौट जाएं, तब तक हम शांति से नहीं बैठ सकते। मैं तो नहीं बैठ सकता। हो सकता है कि कोई श्रणार्थी भाई यहां खुश हो, पैसा भी कमाने लगे, फिर भी उसके दिल से खटक कभी नहीं जाएगी। उसे अपना घर तो याद आएगा ही, दिल में गुस्सा और नफरत भी रहेगी। हमने - दोनों ने - बुरा किया है। दोनों बिगड़े हैं। इसलिए दोनों भोग रहे हैं। किसने पहले किया, किसने पीछे; किसने कम, किसने ज्यादा, यह सोचने से काम नहीं चलेगा। हम सब अपने-अपने बिगाड़ को नहीं सुधारेंगे तो हम दोनों मिट जाएंगे। जब तक हिंदुस्तान और पाकिस्तान में दिल का समझौता नहीं होता, हमारा दोनों का दुख नहीं मिट सकता। "अभी तो एक हिंदू बहन मेरे पास आई थी। कहती थी कि वह अपने घर का ताला बंद करके कहीं गई तो पांच-छह सिखों ने आकर ताला तोड़ लिया और घर में रहना शुरू कर दिया। बहन ने आकर देखा तो पुलिस में रिपोर्ट लिखाई। सुना है, कुछ सिख पकड़े भी गए। एक भाग गया। हिंदुओं और दूसरों ने भी ऐसी गंदी बातें की हैं। इससे हमारे धर्म पर बड़ा कलंक लगता है। ऐसी बातें बंद होनी चाहिए। उस बहन ने मुझसे पूछा कि क्या मैं घर छोड़ दूं ? मैंने कहा, कभी नहीं ! सिख भाई अपना मान रखें, अपनी मर्यादा से रहें। हम सब अपनी मान-मर्यादा से रहें तो सारा झगड़ा खत्म हो जावेगा। एक भाई लिखते हैं कि आपका रोज का भाषण तो सब रेडियो पर सुनते हैं, लेकिन प्रार्थना और भजन रेडियो पर नहीं मिलते। वह भी सब सुन लें तो अच्छा हो। मैं नहीं जानता कि रेडियो क्या करा सकता है, लेकिन अगर वह भजन भी ले तो मुझे अच्छा लगेगा। मैं कहना चाहता हूं कि मैं रोज जो बोलता हूं, जो बहस करता हूं, वह भी प्रार्थना ही है। मेरा यह सब भी भगवान के लिए है। लड़कियां जो भजन गाती हैं वह भगवान के लिए गाती हैं। फिर उसमें सुर की मिठास हो या न हो, भक्ति तो है। जिन्हें सुर की मिठास चाहिए उनके लिए रेडियो पर बहुतेरे गाने होते हैं। जिन्हें भक्ति की मिठास चाहिए, उनके लिए रेडियो पर ये भजन जा सकें तो लाभ ही होगा। सब अपनी-अपनी गलतियों को ठीक नहीं करेंगे तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मिट जावेंगे।" 23 दिसंबर, 1947 को उन्होंने एक दूसरा पहलू उठायाः "यहां बहावलपुर के लोग आ गए। बड़े परेशान हैं। उन लोगों ने बताया कि वहां जितने हिंदू और सिख हैं उन सबको बुला लेना चाहिए, नहीं तो उनकी जान खतरे में है। आज वहां से दो भाई और आ गए। उन लोगों ने भी यही बात बताई। कल तो मेरी खामोशी थी, इसलिए कुछ नहीं कह सका। बहावलपुर के नवाब को चाहिए कि वे सब हिंदू-सिख को, जहां वे जाना चाहते हैं वहां भेज दें, नहीं तो उनके धर्म का पतन हो जाएगा। "उन्होंने कोई गुनाह तो किया नहीं। गुनाह है इतना ही कि वे हिंदू हैं या सिख हैं। बिना गुनाह के काफी हिंदू और सिखों को मार डाला और बाकी भाग गए। जब हिंदू और सिख वहां आराम से रह नहीं सकते तो नवाब साहब कुछ भी कहें, उससे क्या ! मैं तो कहूंगा कि नवाब साहब अपने धर्म का पालन करें, इसी में उनकी शोभा है। अगर वे वहां उन लोगों को इज्जत से रख नहीं सकते तो उनको चाहिए कि वे प्रबंध कर उन लोगों को भेज दें, नहीं तो उन्हें ऐलान कर देना चाहिए कि वहां जितने हिंदू, सिख पड़े हैं उनके बालकों को भी कोई छूने वाला नहीं है। वे आराम से पड़े रह सकते हैं और अगर भूखों मरते हैं तो उनकी रोटी का प्रबंध कर दिया जाए। जो पागलपन हो गया, वह हो गया। वैसा पागलपन तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों में हो गया। उस पागलपन को अब छोड़ दें और शराफत से काम करें। "लाहौर में जो शिविर पड़े हैं, वहां तो मुसलमान हैं। वे शिविर बहुत गंदे हैं | वहां हैजा हो रहा है, सीतला निकल रही है और काफी लोग ऐसे हैं जिनको कुछ हुआ तो नहीं है, लेकिन ठंड में पड़े रहते हैं। कुछ लोग ठंड के कारण भी मरते हैं। पानी से बचने को कुछ रहना चाहिए, तन ढकने को चाहिए और रोटी भी चाहिए। ये न हों तो मरने का चारा हो गया। वे लोग पाकिस्तान में हैं तो क्या हुआ, मुसलमान हैं तो कया हुआ, इंसान ऐसा क्यों बने, मुझे इसका दुख होता है। हमारी ज्यादती के कारण वे लोग यहां से जान बचाकर भागे, घर-बार छोड़कर चले गए। वहां उनका घर-बार तो है नहीं, तो तकलीफ तो होगी ही। आपको मैंने एक वक्त शायद सुनाया तो था कि प्यारेलाल यहां आ गए हैं। मेरे मंत्री का काम करते हैं। बहुत दिनों से वे नोआखाली में काम करते थे। उनके साथ और लोग भी थे - वे सब-के-सब जान पर खेल रहे थे। उससे वहां जितने हिंदू कष्ट में थे उन सबको सहारा मिल गया और मुसलमान भी समझ गए कि वे हमारे दोस्त हैं, सेवक हैं, मारने-पीटने नहीं आए हैं। वे तो दोनों के बीच में अगर हो सके तो मेल कराने आए हैं। वे कहते हैं कि वहां की एक चीज जानने लायक है। वहां किसी मंदिर को मुसलमानों ने तोड़ दिया था और उस पर अधिकार कर लिया था तो यह तो झगड़े की बात हो गई। पीछे उन मुसलमानों ने कहा कि हम हिंदुओं के साथ मिल-जुलकर रहने वाले हैं, लेकिन जब हिंदू मंदिर को नहीं जा सकते, पूजा नहीं कर सकते तो यह जंचने वाली बात नहीं हुई। पीछे मुसलमानों ने कहा कि वे अपने मंदिरों में जा सकते हैं, पूजा कर सकते हैं, तो प्यारेलाल ने कहा कि क्या करोगे, मंदिर तो हैं नहीं, मंदिर तो होना चाहिए, तो उन लोगों ने कबूल कर लिया कि ठीक है, और मेहनत कर मंदिर बना भी दिया और कहा कि आप लोग आराम से रह सकते हैं, पूजा कर सकते हैं, रामधुन चला सकते हैं। वहां प्रतिष्ठा हो गई। इस तरह से अब सब बड़े आराम से रहते हैं। अमलदारों ने भी इसमें हिस्सा लिया। वह अच्छी चीज है। अगर सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान में ऐसा हो जाए तो हमारी शक्ल बदल जाती है। अगर हम अपने धर्म पर कायम रहें और दूसरों के धर्म में दखल न दें तो हमारा सब काम हो सकता है।" सौजन्य: गांधी-मार्ग, जनवरी-फरवरी, 2020 (बिड़ला भवन की प्रार्थना सभाओं में दिए विभिन्न प्रवचनों में से ये अंश लिये गये हैं।) |