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हम इंसान बनेंगे तो गांधीजी करीब मिलेंगे

- सर्वपल्ली राधाकृष्णन*

वह महात्मा गांधी का शताब्दी वर्ष था ! देश का मार्गदर्शन करने वालों में अब देश के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन सबसे वरिष्ठ व विशिष्ट थे | उस समारोह का उद्घाटन व्याख्यान करते हुए उन्होंने कई ऐसी बातों की तरफ हमारा ध्यान खींचा जो आज भी महात्मा गांधी को समझने में हमारी मदद करती हैं.

संसार के अनेक भागों में उत्सुकता और उत्साह दोनों है कि वे कैसे महात्मा गांधी की जन्म-शताब्दी के कार्यक्रमों का, जो 2 अक्तूबर 1969 को होने जा रहा है, आयोजन करें और उसमें सभी शरीक हों | हमें भी अपने इस देश में यह आयोजन करना है और वह इसलिए कि वैसे तो बापू सारे संसार के थे लेकिन वे हमारे देश के भी थे | ‘लंदन टाइम्स’ अखबार ने इसे इस तरह लिखा है : “भारत के अलावा दूसरा कोई देश नहीं है और हिंदू धर्म के अलावा दूसरा कोई धर्म नहीं है जो गांधी जैसी शख्सियत को पैदा कर सके !” यही कारण है कि मैं कह रहा हूं कि वे कुछ खास अर्थों में हमारे थे |

अनेक तरीकों से उन्होंने इस देश की और दुनिया की सेवा की | वे महान राष्ट्रीय नेता थे | वे गुलामों के मुक्तिदाता थे | उन्होंने हमें प्यार की उस सक्रिय ताकत का रहस्य बतलाया, जो कभी विफल नहीं होती है | वे असाधारण नैतिक पुरुष थे जिसने दूसरों पर किसी प्रकार का प्रभाव डालने से पहले खुद को ही उस कसौटी पर चढ़ाया | तरह-तरह के रास्तों से उन्होंने हमें अच्छा बनने में मदद की |

याद करता हूं तो यह कोई 30 साल पहले की बात है जब मैंने गांधीजी से तीन सवाल पूछे थे : पहला था कि आपका धर्म क्या है; दूसरा था कि आप कैसे इस धर्म तक पहुंचे ? और तीसरा था कि इसका आपके जीवन पर क्या परिणाम हुआ ? उन्होंने थोड़े में इस तरह जवाब दिया : “पहले मैं कहा करता था कि ‘मैं भगवान में विश्वास करता हूं’; अब कहता हूं कि ‘मैं सत्य में विश्वास करता हूं |’ पहले मैं कहा करता था कि ‘ईश्वर सत्य है’; और आज मैं कहता हूं कि ‘सत्य ही ईश्वर है |’ ऐसे लोग हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं लेकिन ऐसा कोई इंसान नहीं होगा जो सत्य को नहीं मानता है | यह ऐसी बात है कि जिसे एक निरीश्वरवादी भी कबूल करता है |”

जब वे हमसे ऐसा कहते हैं तब वे कोई नया सिद्धांत उद्घाटित नहीं कर रहे होते हैं | वे सिर्फ उन बुनियादी सत्यों की घोषणा करते हैं, जो हमें उस सांस्कृतिक विरासत से मिले हैं जिसमें हम रहते हैं, जिसमें गांधी का पोषण हुआ | उन्होंने अपने जीवन में दो बातें रखीं : सत्यम् वद, धर्मम् चर ! मतलब कि सच बोलो और सच्चा काम करो | सत्य वचन और सही काम ! वे इसे ही सत्य और अहिंसा कहते थे | कुल यही पूंजी थी उनके पास | सत्य ऐसी कोई चीज नहीं है कि जिसे आप यूं ही कहीं से पा लें या उठा लें | यह मांग करता है कि हम आंतरिक सत्यशोधन की दिशा में गहरी व लंबी यात्रा करें | ऐसी यात्रा, जहां पहुंच कर आंतरिक व बाह्य जगत के बीच एक संतुलन या सुसंवादिता बनती है | वाड्.मनसयोरैकरूप्यं सत्यम् ! वाक् (शब्द) और मनस (विचार) की कोई पहचान या उसका कोई स्वरूप तो होगा ही | अगर उस पहचान को हम प्राप्त कर सकें तो वही है जिसे सत्य कहते हैं | यह वह सत्य है जो हमें इसे विकृत करने की छूट नहीं देता है, अतिशयोक्ति की या बढ़ाने-चढ़ाने की इजाजत नहीं देता है | यह हमें झूठ बोलने से रोकता भर नहीं है बल्कि यह हमें वह सब कहने की इजाजत ही नहीं देता है जिसके बारे में हमारे मन में ही संशय है | इसलिए यह वह सत्य है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें खासी कीमत अदा करनी पड़ती है | हमने चाहा और यह हमें मिल गया, ऐसा नहीं होता है | इसलिए वे कहते हैं, “मैं खुद ही एक संघर्ष से गुजर रहा हूं | मेरे भीतर एक द्वंद्व है उस परम सत्य और जो सामने की परिस्थिति है उसके बीच ! इन दोनों का एक-दूसरे से मेल बैठता नहीं है | मैं इन दोनों के बीच में संतुलन या सुसंवादिता की स्थिति बनाना चाहता हूं तो मुझे प्रायश्चित करना पड़ता है, अपनी सारी बनी-बनाई अवधारणाओं से मुक्त होना पड़ता है और उस परम सत्ता से, जो हमेशा यहां मौजूद है, एकाकार होने की कोशिश करनी पड़ती है |” वे इन शब्दों में अपनी बात रखते हैं |

फिर गांधी हमसे कहते हैं कि अहिंसा सत्य का सक्रिय स्वरूप है | इसका मतलब यह हुआ कि यदि हम अपने रोजमर्रा के कामों से सत्य को जोड़ना चाहते हैं तो हमें अहिंसा-धर्म का पालक बनना होगा | और फिर यह कि अहिंसा के इस रास्ते पर चलने के लिए हमें बहुत-बहुत सावधान रहने की जरूरत है | अहिंसा हमसे यह नहीं कहती है कि हमें कभी भी ताकत का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए | वह तो इतना ही कहती है कि हमारी आत्मा हमेशा पवित्र रहनी चाहिए | योग-सूत्र कहता है : अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग: ! जहां अहिंसा है वहां तो वैर या घृणा हो ही नहीं सकती है | इसलिए कहा - वैरत्याग: ! संसार के किसी भी प्राणी के लिए मन में बुरा भाव हो ही नहीं, वे हमसे यहां तक उठने की अपेक्षा करते हैं | हमें अपने आंतरिक मनोभावों पर काबू रखना है, अपनी चाहतों पर काबू करना है, किसी मनुष्य के लिए कोई विकार-भाव हो ही नहीं | इतना ही नहीं, धरती के सारे प्राणीमात्र के लिए हमारा भाव ऐसा ही हो | ऐसी बातें दूसरे धर्मों ने भी कही हैं, दूसरे विचारकों ने भी कही हैं | कांट ने कहा है : “अपने भीतर सारी मानवता को स्वीकार करो और सारी मानवता में खुद को देखो, और इसे ही अंतिम पूर्णता समझो, न कि किसी बाह्य साधन की बात सोचो !” स्वाइत्जर कहते हैं, “जीवन की आराधना ही वह साधना है, जो हम सबको साधनी है |” ये सब एक ही परम सत्य को व्यक्त करने की विभिन्न कोशिशें हैं - वह सत्य जिसे हमने अनगिनत बार दोहराया है लेकिन अपने रोज के जीवन में हम जिसका पालन नहीं कर पाते हैं | गांधी जब अहिंसा की बात करतें हैं तो उससे उनका मतलब यह होता है कि हमें बुराइयों को जीतना है | बुराइयों को प्यार की ताकत से निष्प्रभावी बनाना है | यदि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर ताकत से उसका मुकाबला करें | यही है जो महाभारत कहता है : ‘शास्त्रादपि शस्त्रादपि !’ बुराई का मुकाबला तो करना है - अपने देश की परंपराओं की ताकत से करें हम या फिर हथियारों से करें | गांधी ने स्वयं भी कहा कि ये दोनों रास्ते सम्मानजनक रास्ते हैं | हमें अपनी अंतिम हद तक जाकर अहिंसा का प्रयोग करना चाहिए | लेकिन अगर हम इस रास्ते बुराई का अंत नहीं कर पाते हैं, उसे समाप्त नहीं कर पाते हैं तो हमें संसार को घृणा और भय के सागर में डूब मरने को छोड़ नहीं देना चाहिए | हमें घृणा के इस भाव से मुक्ति पानी ही है |

घृणा एक ऐसी शक्ति है जो हमारा चिंतन विचलित कर देती है, यह हमारी अंतरात्मा को किसी वाद-विशेष का गुलाम बना देती है | हम अपने भले का रास्ता भी सीधे से देख नहीं पाते हैं | इसलिए हर प्रकार के घृणा-भाव से खुद को मुक्त करना जरूरी हो जाता है | जब तक हम ऐसा नहीं करते हैं तब तक हम अहिंसा के सच्चे आराधक नहीं बन सकते हैं | तो बात सिर्फ शक्ति के प्रयोग से इनकार करने की नहीं है, बात तो घृणा से, दुष्ट विचारों से मुक्ति पाने की है | कमोबेश यही है जिसे हमारी परंपरा से निकालकर उन्होंने हमें समझाया | यही बात हमें भगवतगीता में भी मिलती है | जब अर्जुन महाभारत के रण में खड़े होकर युद्ध से विरत होने की बात करता है, जब वह उस रणभूमि से निकल जाना चाहता है तब कृष्ण उससे कह रहे हैं कि ‘क्षुद्रम ह्रदय दौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ट परंतपा |’ कि ह्रदय की यह दुर्बलता तुम्हें शोभा नहीं देती है, यह तुम्हारे योग्य नहीं है अर्जुन !

गांधीजी भी धीरे-धीरे हिंसा को बर्दाश्त करने से आगे निकलकर घृणा के पूर्ण शमन की तरफ जा रहे थे | लेकिन जब उन्होंने देखा कि दुनिया में ऐसे भयंकर हथियार बन रहे हैं, आण्विक हथियार, जो हमारे पास दूसरा कोई विकल्प छोड़ते ही नहीं है कि या तो संपूर्ण विनाश हो या फिर पूरा संरक्षण हो, तब कहा उन्होंने कि अगर हम जिंदा रहन चाहते हैं तो हमें हिंसा का समूल अंत करना होगा | वे सारे जीवन इसका ही प्रयोग करते रहे और हमें यह विचार दिया कि हमें युद्ध का संपूर्ण अंत करना है |

आज जब दुनिया की सभी आण्विक महाशक्तियां आमने-सामने खड़ी हैं लेकिन अब तक महाविनाश का एक भी मंजर सामने आया नहीं है तो इसके पीछे दो कारण हैं : एक तो जीने की हम सबकी स्वाभाविक लालसा और दूसरा यह कि सामूहिक आत्महत्या के खिलाफ सारे संसार में स्वस्थ इनकार का भाव ! लेकिन यह कोई अनंत काल तक बनी रहने वाली भूमिका नहीं है | जब तक हम यह न कर सकें कि अपना पर्यावरण स्वयं निर्धारित करने लगें और मनुष्य की चेतना में गहरा बदलाव ला सकें, तब तक हम आण्विक विनाश को टाल नहीं सकेंगे | आज महाविनाश जो रुका-सा हुआ लगता है वह भय के कारण है, आतंक के कारण है और आप इसे लंबा खींच नहीं सकते हैं | महाशक्तियां इस खतरे को समझ रही हैं और भय का संतुलन टाल कर, इससे छूटने का कोई रास्ता खोज रही हैं; और इसी वक्त में, इस दौर में गांधीजी का दर्शन, उनका संदेश एक नया ही मतलब अख्तियार कर लेता है और फिर हम पर जिम्मेवारी आती है कि हम अपने जीवन में और अपने बाहर के जीवन में इन संदेशों को जीवंत सक्रियता से लागू करने के लिए क्या करते हैं |

जब गांधीजी को यह प्रतीति हुई कि अहिंसा का मतलब सर्वोदय है - सबका आत्म जागरण, यही मतलब उन्होंने हमें समझाया था, तब यह भी कहा कि इसके लिए किसी प्रकार का राजनीतिक प्रभुत्व कायम करने की जरूरत नहीं है | जब उन्होंने इस देश की पीड़ा देखी, पतन देखा और लोभ-लालच से भरा मन देखा तो उन्होंने कहा, “मुझे इस व्यवस्था से लड़ना है पड़ेगा, मुझे इससे मुक्ति लेनी ही पड़ेगी,” और ऐसा ही उन्होंने किया भी | उन्होंने कहा, “एक पराजित व घुटनों के बल बैठ हुआ हिंदुस्तान न खुद को और न संसार को ही किसी तरह की मदद पहुंचा सकता है | एक स्वतंत्र और जागरूक हिंदुस्तान ही अपनी भी और संसार की भी खिदमत कर सकता है |” और फिर वे आगे भी कहते हैं, “मैं अपने देश की स्वतंत्रता इसलिए चाहता हूं कि वह किसी दिन जरूरत पड़ने पर सारी मानवता के लिए अपना बलिदान कर सके |” यह दिशा थी जो उन्होंने पकड़ी थी, और हमें दिखाई थी |

गांधीजी को इसका अहसास था कि हमारे अपने देश में ऐसा कुछ हो रहा है कि जिसका समर्थन हममें से किसी की अंतरात्मा नहीं करेगी | हम अपने ही भाइयों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जो मनुष्य के स्वाभिमान को हर तरह से कुचल डालता है | ऐसी चीजें चलती हैं हमारे समाज में जिसकी बड़ी कीमत हम अदा कर रहे हैं | इसलिए वे छुआछूत को अभिशाप मानते हैं और कहते हैं कि “जब तक यह किसी भी हिंदू के ह्रदय के किसी कोने में भी पड़ा है तब तक मैं हिंदू होने से शर्मिंदा होऊंगा |” इसी तरह वे कहते हैं, “जब तक मुट्ठी भर लोगों की मुट्ठी में लाखों लोगों की किस्मत कैद रहेगी तब तक हमारा अस्तित्व कृत्रिम, अप्राकृतिक तथा असभ्यतापूर्ण माना जाएगा और हमें इन सबसे छूटने का लगातार प्रयत्न करते रहना होगा |” इसलिए सामाजिक भेदभाव खत्म होने चाहिए, आर्थिक गैर-बराबरी का अंत होना चाहिए तथा राजनीतिक प्रभुता का अंत होना चाहिए | यह सब था जिनके लिए वे देश के भीतर लड़े और पूर्णत:अहिंसा के आधार पर लड़े | अहिंसा का मतलब सबका सर्वत्र जागरण और सबका कल्याण, जिसे वे सर्वोदय कहते थे | वे अपना पूरा जीवन इसके लिए समर्पित कर सके क्योंकि वे हर समय खुद से संघर्षरत रहते थे | वे अत्यंत विनयशील थे | दूसरों से श्रेष्ठ होने का उनका कोई दावा नहीं था, न वे खुद को गलतियों से परे मानते थे | वे दूसरों की राय अत्यंत धैर्य से सुनते थे और उन पर कभी क्रोधित नहीं होते थे | यह वह धैर्य था जो आज की दुनिया को जीत सकता है | हम आज अपनी सभ्यता की शिखर पर तो नहीं ही हैं, कहीं मध्य में भी नहीं हैं | मानव सभ्यता के इतिहास का सवेरा अभी फूट ही रहा है | अभी बहुत दूर जाना है और इस लंबे सफर में यदि हम उनके सिद्धांतों की थाती को ईमानदारी से, गंभीरता से और विचारपूर्वक संभाल कर चलते हैं तो हम आज से बेहतर दुनिया बना सकते हैं |

गांधीजी कहते हैं कि देशभक्ति अपने आप में कोई आखिरी चीज नहीं है | इसकी मर्यादा है | “मैं अपने देश की सेवा इस तरह नहीं करूंगा कि उससे जर्मनी या इंग्लैंड के हित को चोट पहुंचे |” इस तरह की संकीर्णता, इस तरह की स्वार्थी देशभक्ति एक सभ्य इंसान के लिए काम्य नहीं हो सकती है | उन्होंने हमें अपना दर्शन दिया, उन्होंने अपनी उत्कटता हमें सौंपी और अपनी वह अभिव्यक्ति हमें दी जिससे हम अपनी ही गरिमा के प्रति सचेत रहें, अपने सम्मान का बोध हमें हो | उन्होंने हमें यह अहसास भी कराया कि हम मानव कहलाने लायक ही नहीं हैं यदि हम अमानवीय ताकतों में भरोसा रखते हैं | कारण भले कुछ भी हो कि हम अत्यंत दरिद्रावस्था में रहे हैं कि घोर विपन्नता से घिरे हैं हम कि हमारे राष्ट्रीय सम्मान पर चोट पड़ती रही है लेकिन ये सब यदि हमें खींच कर हिंसा के रास्ते ले जाते हैं तब हम गलत हैं, गलत रास्ते जा लगे हैं | यदि हम उनके सिद्धांतों के पालन में खुद को समर्थ न पाते हों तो भी हमें उन सिद्धांतों की सार्थकता और उनकी सर्वोच्च सामयिकता तो स्वीकार करनी ही चाहिए |

गांधीजी का संदेश वैश्विक है | वे उन अवतारी पुरुषों की श्रेणी में आते हैं जिनके शब्दों को उनकी पीढ़ी ने भले न स्वीकार किया हो लेकिन भविष्य की पीढ़ी उनका अनुगमन करेगी | मुझे कोई शक नहीं है कि हम सभी अपने भरसक वह सब कुछ करेंगे जिससे उनका संदेश देश भर में और दुनिया भर में पहुंचे |

सौजन्य : गांधी मार्ग, सितंबर-अक्तूबर २०१८


* देश के तत्कालीन राष्ट्रपति, 28.8.1965 को विज्ञान भवन, नई दिल्ली में शताब्दी-वर्ष के आयोजन का उद्घाटन भाषण |